पुष्कर की ‘प्रसिद्धी’, हरीश का ‘डर’

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अब कौन समझाएं: बयानबाजी से हासिल नहीं होती ताकत
देहरादून। सियासत की चासनी का स्वाद एक बार जो चख लेता है, उसको अपने वास्तविक मंे जीवन दूसरा कोई स्वाद नहीं जचता। वहीं अगर इसी स्वाद की आदत किसी ऐसे व्यक्ति को लग जाए जिसका जीवन ही सियासत को अपने नियंत्रण में रखने के उद्देश्य से बीता हो, तो वह हर प्रकार से ऐसा ही प्रयास करता हुआ नजर आता है कि यह चासनी उसके अलावा किसी और को प्राप्त न हो। इच्छाओं को संजोना हर किसी की आदत होती है लेकिन कुछ ऐसी विभूतियां भी होती है जो यह समझ बैठती है कि यदि वह अपनी इच्छाओं को किसी दूसरे तरीके से प्रस्तुत करेंगे तो संभवतः वह पूरी हो जाए। आभास हो रहा है कि कुछ
इसी प्रकार की इच्छााओं से ग्रसित, न, न, न, यह कहना उचित नहीं होगा। संभवतः कुछ ऐसी इच्छाओं को लेकर ही उत्तराखण्ड राजनीति के चणाक्य कहे जाने वाले वरिष्ठ नेता अपना धेय पूरा करने के मिशन में जुटे हुए है। बात हो रही है पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की जिन्हें खुद ही हाईकमान से तवज्जों मिली तो सही लेकिन देर से मगर फिर भी वह अपने विपक्षियों को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ते। विपक्ष में रहने वाले राजनीतिक दल का यह नैतिक कर्तव्य होता है कि वह सत्ता पर सवाल उठाए। संभवतः इसी कर्तव्य को हरदा भी निभा रहे है लेकिन कुछ अलग तारीके से। वह मैदान पर भले ही कम दिखते हो लेकिन सोशल मीडिया पर उनकी सक्रियता बहुत है। हाल ही में उन्होंने उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पर एक तंज कसा कि वह तो विश्वकर्मा है? तंजों को आधार बनाकर राजनीति करने में निपुण होके हरदा को इस बात का आंकलन करना चाहिए कि जनता वास्तविकता पर विश्वास करती है न की तंज पर। खैर, अब इस बात का तो आभास हो ही रहा है कि हरदा को जमीन पर उतर कर नहीं बल्कि कुर्सी पर बैठकर सोशल मीडिया के माध्यम से राजनीति चमकाना ज्यादा मुफीद लग रहा है?

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