स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर पहाडी जिले भी बीमार!

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गजबः गैरसैंण में एक डाक्टर के हवाले अस्पताल
पी.पी.पी मोड के अस्पताल भी दिख रहे ‘हवा-हवाई’
देहरादून(मुख्य संवाददाता)। उत्तराखण्ड की डबल इंजन सरकार गैरसैंण को ग्रीष्म कालीन राजधानी बनाने के बाद देशभर में इतराती हुई दिखाई दी लेकिन गजब बात यह है कि जिस गैरसैंण को सरकार ने ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का खूब ढोल पीटा लेकिन उस ग्रीष्मकालीन राजधानी में एक मात्र सरकारी अस्पताल है जहां एक डाक्टर के सहारे ही हजारों गांववासियों को इलाज की उम्मीद दिखाई जा रही है लेकिन यह अस्पताल भी इस ओर इशारा कर रहा है कि किस तरह से पहाडी जनपदों के अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवायें बीमार हो चुकी हैं? अगर तेजी से फैल रहा यह कोरोना पहाडी जनपदों में अपना विकराल रूप ले गया तो वहां का जो दृश्य सामने आयेगा उसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल हो जायेगा? उत्तराखण्ड सरकार जब मैदानी जिलों में स्वास्थ्य सेवायें देने में फिस्ड्डी हो रही है तो पहाडी जनपदों में ध्वस्त होती आ रही स्वास्थ्य सेवाओं के भरोसे कैसे सरकार कोरोना से जंग लडेगी यह समझ से परे है?
लचर स्वास्थ्य सेवाओं के लिए अपना उत्तराखंड देश में अव्वल स्थान रखता है,आखिर अव्वल आने के लिए भी कुछ तो करना ही पडता है। ये पहाड़ी जनपदों के वाशिदो का दुर्भाग्य ही तो है,सुविधाएं न मिलने के कारण अकाल के मुँह में असमय ही समा रहे है। शायद राज्य निर्माण के लिए बलिदान देने वालो की सबसे बडी भूल यही थी,आज भी उनकी अजर आत्माये राज्य में सरकार चलाने वालो के जमीर को कोसती होगी। लेकिन सत्ता के भोग में ये इतने अंधे हो गये हैं कि इन्हें अपनी कुर्सी के पाँवो को न खिसकने के लिए ध्यान रखा है। नवोदित राज्य में आज भी तमाम सुविधाओं का टोटा बना हुआ है। उत्तर प्रदेश के जमाने में तो चाहे सजा का तौर पर ही कर्मचारियों को पहाड़ चढाया जाता था,चाहे वे कर्मचारी भारी मन से कार्य करते रहे हो लेकिन जनता के कार्य आसानी से हो जाया करते थे। उत्तर प्रदेश से अलग होते ही यहाँ के वाशिदो पर कुठाराघात हो गया। तमाम सुख सुविधाओं का अकाल आन पडा। स्कूल है तो शिक्षक नही,अस्पताल तो है लेकिन दवा व डाक्टर नही,सड़क है लेकिन केवल फाइलों में, आखिर राज्य के लिए जिन शहीदों की छाती पर राज्य बना ये मात्र 71 विधायकों की सुविधाओं के लिए ही है।
दूरस्थ क्षेत्रों में हल्के से बुखार के लिए भी बीस बीस किलोमीटर का सफर तय करना होता है, वहां पर यदि डाक्टर व दवा न मिले तो उस मरीज की सारी आशायें टूट जाती है। प्रसूति महिला ही जानती है वो कैसे पीडा से तडफ रही है। बहुत सी तो रास्ते में ही मौत के मुँह में समा जाती है। 21वर्षीय राज्य में आज भी स्वास्थ्य सेवाएँ हाशिये पर ही है। जबकि सरकारों की पहली प्राथमिकता दूरस्थ क्षेत्रों की होनी चाहिए थी जो आज भी नहीं है। पहाड़ों के आठ जिलों में जिला चिकित्सालय केवल रेफर सेंटर बने हुए हैं। आजकल पहाडों को भी मौसमी बुखार या कोरोना महामारी ने अपने आगोश में ले रखा है। यातायात के साधन बंद है या दो गुना किराये पर सफर तय करना है तो यह टेढी खीर ही है। बेशक सरकार राज्य में उत्तम स्वास्थ्य सेवाओं की हामी भरती है लेकिन धरातल पर कुछ भी नहीं है। जो अस्पताल बचे खुचे है वा भी फार्मिस्टो के भरोसे या पी.पी.पी मोड पर चल रहे है,ओर जो सरकार चला रही वहां तो न दवा है ओर न ही डाक्टर ही,ऐसे में दूरस्थ क्षेत्रों लोग इस विज्ञान के युग में भी कालापानी की सजा भुगतनी रहे है। एक जिले के वरिष्ठ फिजीशियन ने नाम न छापने पर बताया है कि हमारा दुर्भाग्य है कि मेरा जन्म भी पहाड़ मे ही हुआ है लेकिन मै कुछ नहीं कर सकता हूँ क्योंकि आपातकाल में यदि किसी की सर्जरी करनी पडे तो इंजेक्शन तक नहीं है,हर माह दवाओं की मांग की जाती है लेकिन अस्पतालों तक नही पहुँच पाती है। मजबूरी में हमे रोगी को हायर सेंटर रेफर करना पडता है। जो बहुत ही दुखद है। जागरूक जनप्रतिनिधियों ने जनता की निधियों से जिला चिकित्सालय में एक्सरे,अल्ट्रासाउंड व डायलिसिस की मशीन लगायी हि लेकिन वे भी मात्र शो पीस बनकर रह गई है, आजतक तकनीकी स्टाफ की नियुक्ति नही हो पायी है। सरकार सब जानती है लेकिन वह करना नही चाहती है,सरकार का ध्यान तो जनता की सेवा के लिए नहीं अपितु अपने महामठाधिशो की परिक्रमा के लिए है जिन्होंने उनकी कुर्सी के पाँव मजबूत करने है।

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