सलाहकार नहीं धिक्कार! साजिश नरेश थे एडवाइजर रमेश?

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प्रमुख संवाददाता
किसी दरखत की मजबूती का आंकलन इस बात से किया जाता है कि उसकी जड़ें कितनी मजबूत है क्योंकि अगर जड़ें ही कमजोर होंगी तो एक न एक दिन दरखत धड़ाम से जमीन पर आ गिरेगा। कुछ इसी प्रकार से शासन की प्रक्रिया भी रहती है जिसके मुखिया की मजबूती इस बात पर निर्भर होती है कि उसको ऐसी सलाहें मिले जिससे कि मुखिया को शासन को नियंत्रण के साथ चलानें में आसानी हो। इस सुविधा के लिए मुखिया अपने साथ सलाहकारों को रखता है लेकिन अगर सलाहकार ही मुखिया को उल-जूलूल की सलाहें देने लगे और मुखिया को अपने नियंत्रण में रखकर खुद को ही सत्ताधीश समझने लगे तो यह कहना गलत नहीं हो कि ऐसे लोग सलाहकार नहीं बल्कि धिक्कार हैं? यह बातें किसी दंतकथा का सार नहीं बल्कि उत्तराखण्ड राज्य की हकीकत को बयां करती है। बीते माह उत्तराखण्ड की सियासत में एक भूचाल उस समय आ गया था जब भाजपा हाईकमान ने सूबे के मुखिया को ही बदल दिया। इस बदलाव को लेकर काफी गहमागहमी हुई और कयासबाजियों का दौर शुरू हो गया। हालांकि राजनीतिक जानकारों का मानना यह है कि राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत को उनका अपने सलाहकारों के प्रति अट्ट प्रेम ले डूबा और वो भी वे सलाहकार जिन्होंने संभवतः खुद को चाणक्य का वंशज समझा और आश्चर्यचकित करने वाले निर्णयों को लेने के लिए मुखिया को प्रेरित या यूं कहे कि मजबूर किया और अंततः उसका खमियाजा और किसी को नहीं बल्कि मुखिया को ही भुगतना पड़ा? सत्ता के चार साल पूरे न कर पाने का दर्द तो पूर्व मुखिया के दिल भी जरूर हो लेकिन कोई कर भी क्या सकता है जब उन्होंने ही अपनी फौज में ही साजिशों के पहाड़ खड़े करने वाले रमेश को ही अपनी एडवाइजरी का नरेश बना रखा था?
पिछले दिनों सोशल मीडिया पर ऐसे कई दस्तावेज प्रसारित हुए जिन्होंने पूर्व मुखिया के सलाहकार नरेश की वास्तविकता से सभी को रूबरू करा दिया। इस बात से भी पर्दा उठ ही गया डबल इंजन सरकार पार्ट वन में जिन पत्रकारों पर फर्जी मुकदमें दर्ज हुए थे वह इसी सलाहकार नरेश की दिमागी उपज से उग कर आई साजिशों के कारण ही दर्ज हुए थे। किसी जमाने में पत्रकारिता को अपना धर्म कहने वाला यह सलाहकार नरेश अपने सहायकों के साथ मिलकर उन कलम के सिपाहियों के सिपाहियों को सलाखों के पीछे भेजने में जुट गया था, जोकि हमेशा से आवाम को अपनी कलम के दम पर सच से रूबरू कराते आए है।
कहते है कि अगर किसी कड़वे सच छिपाना हो तो उसे झूठ की चासनी में ऐसा डूबो दो कि वह कड़वा सच हमेशा के लिए लोगों की आंखों से ओछिल हो जाए। ऐसा ही एक कड़वा सच उस समय छिपाया जब एक निजी चौनल के सीईओ उमेश कुमार ने उत्तराखण्ड की डबल इंजन सरकार पार्ट वन के मुखिया द्वारा रांची के अमृतेश चौहान से किए गए लेनदेन को जग जाहिर किया था। सीईओ ने यह आरोप लगाया था कि मुखिया ने अमृतेश से उसको एक पद दिलाने के एवज में कई लाख रुपए अपने जानकारों के बैंक अकाउंट में नोटबंदी के दौरान जमा करवाए थे। इस बात में कितनी हकीकत है इसका फैसला तो न्यायालय में ही होगा क्योंकि यह मामला और इससे जुड़े अन्य मामले वहां विचाराधीन है। यह प्रकरण जब जगजाहिर हुआ उस समय सबसे अचंभित करने वाली बात यह देखने को मिली कि इस मामले को लेकर जिन्होंने ‘‘व्हीसल ब्लो’’ की थी उन्हें साजिश के तहत फर्जी मुकदमों में सलाखों के पीछे भेजा जाने लगा। हालांकि यह बात भी दीगर है कि इस मामले से जुड़ी साजिशनुमा दलीलें न्यायालय में आंधे मुंह गिरी। समय की बीतने के साथ-साथ इस बात से पर्दा उठने लगा कि इन साजिशों के पीछे डबल इंजन सरकार पार्ट वन के मुखिया के नूर-ए-नजर कहे जाने वाले सलाहकार नरेश रमेश के माइंड की मास्टरी थी? कुर्सी छिन्ने तक भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस का राग अलापने वाले पूर्व मुखिया तो भ्रष्टाचार पर लगाम लगा न सके जबकि उनके सलाहकार नरेश खुद उनके ही कथित भ्रष्टाचार के कड़वे सच को छिपाने के लिए झूठ की चासनी में डूबी साजिशों को अंजाम देते रहे? अब देखना यह होगा कि सूबे के नए निजाम जोकि फ्रंटफुट पर बैटिंग करते हुए सरकार से लेकर नौकरशाही में हिलाहवाली करने वालों के पेंच कस रहे है, वे कब इन सलाहकार नरेश पर अपनी नजर गढ़ाएंगे?

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