न अस्पताल, न वैल्टीनेटर और मिली तो बेटी के आंचल में बाप की मौत

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ऐसे तो मौत का शहर बन जायेगा दून?
प्रमुख संवाददाता
देहरादून। उत्तराखण्ड के प्रभारी स्वास्थ्य सचिव मीडिया के सामने आकर ऐसे दहाडते हैं मानो उन्होंने उत्तराखण्ड की स्वास्थ्य सेवाओं को कितना बेहतर बना दिया है और अब कोरोना के किसी भी मरीज को वैल्टीनेटर बैड, ऑक्सीजन के लिए दर-दर भटकना नहीं पडेगा लेकिन राजधानी में उनका यह दावा सिर्फ झूठ का पुलिंदा ही साबित हो रहा है इसका सच रायपुर के सहस्रधारा रोड में रहने वाले एक परिवार ने खुद उजागर किया है। बकौल परिवार का कहना है कि उनके परिवार के मुखिया को कोरोना हुआ तो उन्हें दून अस्पताल में तीन दिन इलाज मिला लेकिन वहां के डाक्टर ने उन्हें यह कहकर डिस्चार्ज कर दिया कि वह घर पर कोरोंटाइन रहकर दवाईयां खाये। हालांकि उनका ऑक्सीजन लेबल कम देखकर भी उन्हें वहां से घर भेज दिया गया और 48 घंटे से उनकी बेटी सरकार की हैल्पलाइन 104 पर कॉल करती रही लेकिन जवाब कुछ नहीं मिला और वह अपने पिता को मौत के मुंह में जाता देख उनके लिए अस्पताल में एक बैड व वैल्टीनेटर की फरियाद कोे लेकर शहर के सरकारी अस्पताल से लेकर हर प्राईवेट अस्पताल में अपने दस साल के भाई के साथ भटकती रही लेकिन उसे अपने पिता को जीवनदान देने के लिए कोई रास्ता नहीं मिला और रात दो बजे ऑक्सीजन लेबल तेजी से कम आने पर जब उन्हें एक अस्पताल में एम्बुलेंस से ले जाया गया तो गहरी सांसों से अपनी बेटी को निहारते बाप ने उसके आंचल में अपना दम तोड दिया। इस दिल दहला देने वाले दृश्य को देखकर यह साफ हो गया है कि सरकारी सिस्टम सिर्फ बयानबाजी तक ही सीमित है और धरातल पर जिस तरह से एक बैड व वैल्टीनेटर न मिलने के कारण कोरोना के मरीजों की मौत का मंजर हर परिवार को डराने लगा है उसको देखकर यह आशंका भी पनपने लगी है कि कहीं सरकारी सिस्टम इसी तरह से हवाबाजी में दावे करता रहा तो कहीं यह शहर मौतों का शहर न बन जाये?
उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड में प्रचंड बहुमत की सरकार है लेकिन जिस तरह से स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर वह पिछले चार सालों से राज्यवासियों को स्वास्थ्य के क्षेत्र में सुविधायें देने के लिए कोई बडी रणनीति तैयार करने को आगे नहीं आई उसी का परिणाम है कि आज जब कोरोना की दूसरी लहर उत्तराखण्ड में भी आई तो उसने सरकारी सिस्टम की पोल खोलकर रख दी। सवाल उठे कि पूर्व सरकार के मुखिया ने तो बडे-बडे दावे किये थे कि कोरोना से भविष्य में लडने के लिए सरकार ने समूची तैयार कर ली है और बडे पैमाने पर अस्पतालों का निर्माण किया जायेगा जिससे कि कोरोना के किसी भी मरीज की बैड न मिलने के कारण आकाल मृत्यु न हो सके। हालांकि अब कोरोना की दूसरी लहर में समूचे उत्तराखण्ड के अन्दर सरकारी व प्राईवेट अस्पतालों में कोरोना के मरीजों को न तो वैल्टीनेटर बैड मिल पा रहे हैं और न ही उन्हें ऑक्सीजन सिलेण्डर मिल पा रहे हैं। उत्तराखण्ड के अन्दर कोरोना के मरीजों के मन में जिस तरह से मौत का भय दिखाई दे रहा है वह किसी से छिपा नहीं है क्योंकि सरकारी सिस्टम के पास कोरोना से युद्ध स्तर पर लडने के लिए कोई बडा सिस्टम हो ऐसा अब तक देखने को नहीं मिल पाया? भले ही शासन के प्रभावी स्वास्थ्य सचिव पंकज पांडे आये दिन पत्रकारों के सामने आकर बडे-बडे दावेे कर रहे हों कि राज्य में वैल्टीनेटर बैड व ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं है लेकिन धरातल पर सचिव के यह दावे एक झूठ का पुलिंदा ही दिखाई दे रहे हैं? राजधानी में कोरोना के जिन मरीजों का ऑक्सीजन लेवल कम हो रहा है वह मरीज आखिर कहां इलाज के लिए जायें यह बताने वाला सरकारी सिस्टम कहीं दिखाई नहीं दे रहा? एक परिवार ‘क्राईम स्टोरी’ से दो दिन तक अपने परिवार के मुखिया को अस्पताल में भर्ती कराने व ऑक्सीजन सिलेण्डर के लिए फरियाद करता रहा और सरकार ने जो 104 हैल्पलाइन बना रखी है उस पर दर्जनों बार फोन करने के बाद भी वहां से कोई जवाब न मिलने के कारण यह परिवार रोता-बिलखता रहा और उसने बताया कि एक सप्ताह पूर्व उनके घर के मुखिया को जब कोरोना हुआ तो उन्हें दून अस्पताल भर्ती कराया गया जहां इलाज के नाम पर सिर्फ दिखावे के अलावा कुछ नहीं था और उनके मुखिया का ऑकसीजन लेवल कम होने के बाजवूद भी उन्हें यह कहकर अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया कि उनकी रिपोर्ट सही है और वह घर पर कोरोन्टाइन हो। अस्पताल से घर आने के बाद परिवार के मुखिया का इलाज चलता रहा और दो दिन से जब उनकी तबियत खराब हुई तो परिवार की बेटी व दस साल का बेटा अपने पिता को किसी भी अस्पताल में भर्ती कराने के लिए रात-दिन भटकते रहे लेकिन उन्हें हर जगह नउम्मीद होना पडा और बीती रात दो बजे जब उनका ऑक्सीजन लेवल कम हुआ तो उनकी बेटी व बेटा एम्बुलेंस में अपने पिता को पटेलनगर के एक अस्पताल ले गये लेकिन रास्ते में ही अपनी बेटी के आंचल में जिंदगी व मौत के बीच संघर्ष कर रहा एक पिता हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह गया। ऐसे में साफ समझा जा सकता है कि उत्तराखण्ड की अस्थाई राजधानी में सरकार के सरकारी दावे एक झूठ के पुलिंदे से ज्यादा कुछ नहीं है? अगर एक आईसीयू बैड व ऑक्सीजन के लिए इसी तरह से कोरोना के मरीजों को भटकना पडा तो यह शहर मौत का शहर कब बन जायेगा इसका पता भी नहीं चलेगा?

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