देहरादून(संवाददाता)। उत्तराखण्ड बनने के बाद से ही राज्य के अन्दर भू-कानून और मूल निवास को लेकर कभी कोई बडा शोर सुनने को नहीं मिला और राज्य की सभी सरकारों में यह दोनो मुद्दे कहीं आंदोलन का रूप लेते हुए दिखाई नहीं दिये थे। उत्तराखण्ड के पहाड से लेकर मैदान तक के जनपदों में कृषि व आवासीय भूमि खरीदने के लिए कोई प्रतिबंध दिखाई नहीं देता था लेकिन एक दो पूर्व सरकार ने कृषि भूमि की खरीद को लेकर जरूर अपना विजन साफ किया था लेकिन तब तक राज्य के बाहर रहने वाले सैकडों लोगों ने पहाड से लेकर मैदान तक में जमीनें खरीदकर वहां अपना आशियाना और व्यवसाय शुरू कर अपनी एंट्री से सबको चोका रखा था। धामी सरकार ने जबसे सत्ता संभाली है तबसे भू-कानून और मूल निवास को लेकर ऐसी नौबत किसी जिले मे दिखाई नहीं दी कि इसको लेकर काफी संगठन सडकों पर आंदोलन करने के लिए उतर आयें। पिछले डेढ साल से अचानक राज्य के अन्दर भू-कानून और मूल निवास को लेकर एक बडे आंदोलन की रूपरेखा तैयार कर सडकों पर आंदोलन का शोर तेजी के साथ मचने लगा है जबकि मुख्यमंत्री बार-बार इस बात का वचन दे रहे हैं कि राज्य सरकार राज्य के अन्दर सशक्त भू-कानून और मूल निवास पर आने वाले समय में बडा फैसला लेगी। सरकार के वचन पर काफी संगठन विश्वास करने के लिए क्यों तैयार नहीं है यह तो वह ही जाने लेकिन अब एकाएक राजधानी के अन्दर मूल निवास व भू-कानून को लेकर राजधानी के शहीद स्थल पर भूख हडताल करने का जो दौर शुरू होने की आहट सुनाई दी है उससे सवाल पैदा हो रहे हैं कि आखिरकार एकाएक अब भू-कानून और मूल निवास को लेकर सरकार को कटघरे मे खडा करने का क्यों खेल शुरू किया गया है?
उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड का गठन हुये चौबीस साल हो गये और इस लम्बे अन्तराल में राज्य की जनता ने भाजपा व कांग्रेस की सरकारों का कार्यकाल देखा है और किसी भी सरकार के कार्यकाल में मूल निवास व भू-कानून को लेकर कोई शोर मचा हो ऐसा देखने को नहीं मिला और यह दोनो मामले हमेशा कभी कभार सुनने को मिला करते थे। हैरानी वाली बात है कि उत्तराखण्ड के हितों की बात करने वाली उक्रांद के कुछ नेताओं ने भाजपा व कांग्रेस के शासनकाल में उसका अंग बने और उन्होंने कभी भी अपनी सरकार को मूल निवास व भू-कानून को राज्य के अन्दर लागू करने की दिशा में कोई धमक दिखाई हो ऐसा कभी देखने को नहीं मिला।
उत्तराखण्ड के पहाडों में रहने वाले लोग ही खुद अपनी जमीनें बेच रहे हैं तो उसमें सरकार क्या कर सकती है क्योंकि वहां रहने वाले लोगों के मन में अगर भू-कानून लागू कराने को लेकर कोई जज्बा दिखाई देगा तो वह कभी भी पहाडों में अपनी जमीनें बेचने के लिए आगे नहीं आते और उसी से समझा जा सकता है कि पहाड के लोगों के मन में भू-कानून को लेकर कोई उत्साह देखने को नहीं मिला और उत्तराखण्ड की क्षेत्रीय पार्टी उक्रांद के वो राजनेता जिन्होंने पूर्व सरकारों में रहकर मंत्री पद संभाले और अपना दबंगता के साथ कार्यकाल पूरा किया उन्होंने भी कभी अपने कार्यकाल में न तो भू-कानून और न ही मूल निवास को लेकर ऐसा कोई शोर मचाया जिससे सरकार को वह मजबूर कर पाते कि इन दोनो गंभीर मुद्दों पर वह बडी पहल करते हुए उसे राज्य के अन्दर लागू करें।
उत्तराखण्ड की कमान जबसे मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने संभाली है और वह गढवाल व कुमांऊ को बैलेंस करते हुए वहां विकास की धारा बहा रहे हैं उनके उस विजन को देखकर कुछ राजनेता और सफेदपोशों की आंखों में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी खटकने लगे हैं और उन्होंने मुख्यमंत्री को अपने निशाने पर लेने के लिए खुद को पर्दे के पीछे रखकर अब मूल निवास और भू-कानून को राज्य में लागू कराने को लेकर जो राजनीति का नया फलसफा तैयार किया है उसके चलते वह पहाडों में राजनीतिक तपिश को फैलाने के लिए एक नये एजेंडे पर आगे बढते हुए दिखाई दे रहे हैं? गजब की बात यह है कि चौबीस साल में कभी भी किसी संगठन को भू-कानून और मूल निवास को लेकर धरने प्रदर्शन और रैलियां करते हुए नहीं देखा गया लेकिन मौजूदा दौर में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के शासनकाल में कुछ संगठनों को अब भू-कानून और मूल निवास को राज्य में लागू कराने की जो जिद्द सवार हो रखी है उससे आशंकाओं का दौर तेज हो गया है कि आखिरकार जब राज्य के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी डेढ करोड से अधिक की जनता को वचन दे चुके हैं कि सरकार राज्य मे सशक्त भू-कानून और मूल निवास को लेकर बडी रणनीति के तहत काम कर रही है और आने वाले समय में सरकार सशक्त भू-कानून को लागू कर राज्यवासियों के किये गये अपने वायदे को पूरा करेगी।