जनाधार खो रही है ‘सबसे पुरानी’ पार्टी

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भाजपा के डबल इंजन मंत्र ने तोड़ी कमर
प्रमुख संवाददाता
देहरादून। कांग्रेस, एक ऐसी राजनीतिक दल जिसका एक समय में पूरे देश के अंदर ऐसा जलवा था कि चुनाव कोई सा भी, प्रत्याशी को सिर्फ कांग्रेस के नाम से जनाधार मिल जाता था। यही वजह रही थी कि देश के आजाद होने के बाद कांग्रेस 5-6 दशकों तक देश की सत्ता पर विराजमान रही थी। यही नहीं राज्यों में भी कांग्रेस की सरकार प्रासंगिक बन चुकी थी। हालांकि पिछले एक दो दशकों से उसकी यह प्रासंगकिता ध्वस्त होती हुई नजर आई है। देखने में आया है कि कांग्रेस न सिर्फ राज्यों में बल्कि देश में भी जनाधार खोती जा रही है। कितनी हैरानी वाली बात है कि जो राजनीतिक पार्टी जोकि देश की सबसे पुरानी पार्टी है और जो अपने नाम मात्र से सत्ता की चाबी हासिल कर लेती थी, पिछले कई सालों से प्रचंड बहुमत के साथ देश और राज्यों में सत्ता पर काबिज होने वाली कांग्रेस को अब सत्ता के लिए तरसना पड़ रहा है? इन सवालों के जवाब में राजनीतिक विशेषज्ञ कई विभिन्न तर्क देते हुए नजर आते है। उनके तर्कों में से जो सबसे सटीक बैठता है वह यह है कि पिछले कुछ वर्षों से जनता ने बदलाव को मन बना रखा है और वह कांग्रेस को सत्ता पर असीन होते हुए नहीं देखना चाहती है। जनता के इस बदलाव के मूड को पंख तब लगे जब वर्ष 2014 में भाजपा की एनडीए सरकार केन्द्र की सत्ता में आई। जिसके बाद भाजपा ने एक मंत्र दिया ‘डबल इंजन’। इसके बाद जिस भी राज्य में विधानसभा चुनाव हुए वहां भाजपा जनता को आकर्षित करने के लिए उन राज्यों में डबल इंजन की सरकार स्थापित करने मंत्र फूंकने लगी और इससे उसे कामयाबी भी हासिल हुई। इस मंत्र ने केन्द्र में ही नहीं बल्कि कई राज्यों में भी कांग्रेस की कमर तोड़ दी। कई राज्यों की तरह इस बदलाव का असर उत्तराखण्ड में भी देखने को मिला। उत्तराखण्ड में पिछले दो लोकसभा सभा चुनावों में जिस तरह से भाजपा ने पांचों सीटों पर कब्जा जमाया उससे यह साफ अंदाजा लगने लगा है कि अब यहां कांग्रेस बुझ सी गई है और यहीं नहीं विधानसभा चुनावों के परिणाम भी इसी ओर इशारा कर रहे है। सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस का बुझता चिराग उत्तराखण्ड में दोबारा रौशन हो पाएगा?
उत्तराखण्ड राज्य के इतिहास में वर्ष 2016 और 2017 राजनीतिक रूप से काफी नाटकीय रहे थे। तत्कालीन कांग्रेस सरकार में उस कालखंड में ऐसे उतार चढ़ाव देखने को मिले जो कि इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह गए। इस कालखंड में उत्तराखण्ड की जनता ने पहली बार मौजूदा सरकार को अस्थिर होते हुए देखा, विधानसभा में विधायकों की परेड (फ्लोर टेस्ट) को होते हुए देखा, सरकार को गिरते हुए देखा और इसके बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होते हुए देखा। इन सब घटनाक्रमों के बाद हुए विधानसभा चुनाव के बाद कुछ ऐसा हुआ, जिसकी शायद किसी ने कल्पना नहीं की होगी। चुनाव नतीजों के बाद जो छवि सामने आई उसने हर किसी को हत्प्रभ कर दिया। एक ओर जहां भाजपा डबल इंजन के मंत्र के साथ प्रचंड बहुमत हासिल करने में सफल हुई तो वहीं जो पार्टी चुनाव से पहले सत्ता में थी, कांग्रेस उसका आंशिक रूप से सफाया ही हो गया। उत्तराखण्ड कांग्रेस के नेताओं में इस हार को लेकर एक कोताहूल उस समय देखने को मिला था और वह इस बात को लेकर मंथन करने को मजबूर हो गए थे कि आखिर वह यह चुनाव कैसे हार गए? इस सवाल का जवाब तो एक ही नजर आया कि जनता ने उन्हें वोट नहीं दिया इसलिए वह चुनाव हार गए, सीधी से बात है।
पिछले कुछ दशकों में जिस प्रकार से कांग्रेस का सक्सेस रेट गिरा है, उसके पीछे उसके पीछे का कारण उसकी राजनीतिक रणनीति की विफलता भी माना जा रहा है। जानकारों का यहां तक मानना है कि देश की आजादी के बाद पहली बार इसी दौर में ऐसा देखने को मिला है जबकि कांग्रेस के सामने कोई टक्कर का राजनीतिक दल आया है जिसने उसे सत्ता से बेदखल करने का मद्दा दिखकार, खुद सत्ता की कुर्सी संभाल ली है। आश्चर्य की बात तो यह है कि जो कांग्रेस एक वक्त पर सत्ता के मद में चूर रहती थी, उसी कांग्रेस को आज सत्ता के लिए तरसना ही नहीं पड़ रहा है, अपितु सत्ता के लिए उसे ऐसे दलों से गठंबधन करना पड़ रहा है, जिनकी वह हमेशा से धुर विरोधी रही है। पिछले कुछ चुनावों में जिस प्रकार से जनता ने कांग्रेस को हाशिए पर ढकेल दिया है, वह इस ओर साफ इशारा करता है कि अब कांग्रेस बुझ गई है और सत्ता पाने का उसका ख्वाब भी एक ख्वाब ही बन गया है?

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